Wednesday, 21 December 2016

जब कहते हो ये तुम



जब कहते हो ये तुम
मेरी जुल्फों में कैद हैं बादल
सुबहें मुहताज हे मेरी पलकों के उठने की
और शामें तक पलकें बुझने की   
आँखों में बंद हैं सागर नदी बरसात सब
टांक रखे हैं जूड़े में तारे मैंने
सूरज हथेली में सजा रक्खा है
बाँध रखी है हवाएं आँचल से
चाँद को छत पे बुला रक्खा हे

तुम ही तो कहते हो
मेरी मुस्कान से खिलते हैं फूल
खुशबू से महकती बगिया भी
डूबने लगती हे धरती मेरे आंसुओं में
मैं धुरी हूँ तुम्हारी
कि अगर मैं न होती तुम्हारे जीवन मे
तो रुक जाती गति
सांसें थम जातीं सीने में

ये कहकर कहा है न तुमने
सारी सृष्टि में लय मुझसे है
तुम्हारे जीवन में गति मुझसे है
मैं आधार तुम्हारे जीवन का
मैं विस्तार तुम्हारे आँगन का
जब कहते हो ये तुम
तो बताओ क्या मानते भी हो मुझे ?
इतना ही ज़रूरी
श्रृष्टि स्वरूपा  
सर्वशक्ति

...संयुक्ता

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