Thursday 9 February 2017

ऐसे तुम बहुत बुरे



एक मुलाकात
थोड़ी सी बात
बस कुछ हालचाल
कहना सुनना पूछना बताना
सुबह शाम का आना जाना
भोर के गीत चंद्रमा से सुनकर
जैसे के तैसे तुम्हें सुनाना
बगिया में कितने फूल खिले
कितने बीजों में अंकुर फूटे
गिन गिन कर सब तुम्हें बताना
ऐसी मैं
सदा फिक्रमंद
और
बुलाने पर भी न आना
बिना बताए चले जाना
नख से शिख तक
बिखरे उलझे अव्यवस्थित
बेपरवाह बेतरतीब अनजान
ऐसे तुम
बहुत बुरे

.........संयुक्ता

कोशिश तो की थी तुमने




कोशिश तो की थी तुमने बहुत
कि बाँध सको मुझको तुम
नख से शिख तक इक बंधन में
कष्ट दिए हैं कितने कितने
छेद दिया अंग अंग मेरा रीति रिवाजों के नाम पर
नथनी और बाली कहकर
डाल दी बेड़ियाँ भी श्रृंगार के नाम पर
हार कंगन पायल कहकर
ढांक दिया नख से शिख तक परंपरा और मर्यादा के नाम पर
गूंगापन और घूंघट कहकर
लेकिन सुनो
मैं औरत हूँ
उतना ही बंधूंगी जितना चाहूंगी
धरती हूँ
हथेली पे रखती हूँ तुम्हारी दुनिया
इसे उजाड़ना पल भर का खेल है  
उतना ही सहूँगी जितना चाहूंगी
यदि तुम बांधना ही चाहते हो मुझे
तो देती हूँ एक सूत्र मुझे बांधे रखने का
आत्मा को बांधो आत्मा से  
और आत्मा बंधती है केवल और केवल
प्रेम से सम्मान से
इसके इतर
तो तुम्हारी क्षमता नहीं
मुझे समेटने वश में करने की |

.................संयुक्ता

Sunday 5 February 2017

अब जब हम मिलते हैं



किलोमीटर की धुंध में
ओझल हो गए मन से
कुछ अधिकार हमारे
खो गयी सफ़र में
चिंताएं,फिक्रें, ख़याल सब
मिलते तो हैं मंजिलों पर
लेकिन अब साँझा नहीं
मंजिलें अपनी अपनी हो गयीं
अब जब हम मिलते हैं
पूछ लेते हैं हाल चाल
घर-बार के
रिश्ते परिवार के
लेकिन अब
कहाँ पूछते हो तुम
और कहाँ कहती हूँ मैं
हाल मेरे मन के
अब जब हम मिलते हैं
प्यार नहीं
औपचारिकताएं निभाते हैं.......