कोशिश तो की थी तुमने बहुत
कि बाँध सको मुझको तुम
नख से शिख तक इक बंधन में
कष्ट दिए हैं कितने कितने
छेद दिया अंग अंग मेरा रीति रिवाजों के नाम पर
नथनी और बाली कहकर
डाल दी बेड़ियाँ भी श्रृंगार के नाम पर
हार कंगन पायल कहकर
ढांक दिया नख से शिख तक परंपरा और मर्यादा के नाम पर
गूंगापन और घूंघट कहकर
लेकिन सुनो
मैं औरत हूँ
उतना ही बंधूंगी जितना चाहूंगी
धरती हूँ
हथेली पे रखती हूँ तुम्हारी दुनिया
इसे उजाड़ना पल भर का खेल है
उतना ही सहूँगी जितना चाहूंगी
यदि तुम बांधना ही चाहते हो मुझे
तो देती हूँ एक सूत्र मुझे बांधे रखने का
आत्मा को बांधो आत्मा से
और आत्मा बंधती है केवल और केवल
प्रेम से सम्मान से
इसके इतर
तो तुम्हारी क्षमता नहीं
मुझे समेटने वश में करने की |
.................संयुक्ता
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