Monday 19 December 2016

इक बूँद बराबर होकर

ए सुनो चाँद के चेहरे से चमकने वाले
रात की  आँखों सी संजीदा नज़र रखते हो
और बरगद की तरह ठोस ये बाहें तेरी
उलझी बेलों से पटे पर्वती छाती वाले

कहाँ पर्वत है ये दीवार हुआ जाता है
इसी दीवार ने घेरा है किसी कमरे को
जहाँ पे कैद की है तुमने नाज़ुकी दिल की
जिसे छूने की इजाज़त भी नहीं है लेकिन
याद है जब तेरे सीने से लगके रोई थी मैं
एक आंसू वहीँ सीने पे गिरा आई थी
एक उम्मीद थी कि ये भी हो सके शायद
एक जंगल में प्रेमबेल फल सके शायद
नहीं भी हो सका ऐसा अगर तो यूँ होगा
मेरे आंसू की नमी सींचती रहेगी ज़मीं
उन सुराख़ों से उतर जाउंगी मैं अन्दर तक
जहाँ पे कैद की है तुमने नाज़ुकी दिल की

उसे छूकर मैं खोल दूँगी बेड़ियाँ उसकी
और घुल जाउंगी उसके वजूद से तुम में
यूँ ही पा लूंगी मैं तुमको तुम्हारा दिल होकर
जान हो मान लो कि लाख रोक लो मुझको
नहीं मुमकिन है रोकना ये मुहब्बत का सफ़र
नहीं दरिया न समंदर न मैं बारिश कोई
तुम्हें पा लूंगी मैं इक बूँद बराबर होकर ...................
तुम्हें पा लूंगी बस इक बूँद बराबर होकर

.....संयुक्ता

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