Thursday 16 March 2017

बिछोह का रंग



वो जो मेरे मुस्कुराने से
तुम्हारे दिल की बढ़ती एक एक धड़कन ने जो लिखी थीं
देखना वो प्रेम कविताऐं
मिल जाऐंगी लाइब्रेरी की सबसे ऊपर की रैक में
समाजशास्त्र की किताबों में दबी
पुरानी ही खुश्बू के साथ पुरानेपन के ज़र्द रंगों की पैरहन में लिपटी


शायद वहीं खूंटी पर टंगें हो सब अधूरे किस्से भी
जिस पर टांगा था मैंने तुम्हारा पीला कुर्ता
और शायद इन किस्सों की ज़र्दी उसी कुर्ते का उतरा रंग हो
जिस पर से उतर गया मेरे स्पर्श का गुलाबीपन

और मेरे ख़त मिलेंगे तुम्हें
खिड़की के पास रखी तुम्हारी स्टडी टेबल पर
किसी अभया या किसी सुधा की बंद हथेलियों
या शायद उसी पहली डायरी में
हमारे संयुक्त हस्ताक्षर वाले पन्ने के पास
जहां रखी थीं हमने सारी मुलाकातें सहेजकर
हाँ लेकिन स्पष्ट नहीं होंगे अक्षर
पीले हो गए होंगे
मरने लगे होंगे खुद को महज़ कागज़ मानकर
फिर महीनों से देखे भी तो नहीं तुमने

जूड़े में तुमने टांका था जो आधी रात का पूरा चाँद
कभी न सुलझने की चाह में अंगुलियों की अंगूठियां
पैरों की हलचल से चली हवा में लहराती
झीलों की सितारे टंकी काली ओढ़नी
ये सब कुछ रक्खा था मैंने
सिंगार पेटी में रखकर बिलकुल कोने में खड़ी
लकड़ी की उस पुरानी अलमारी में
देखना अब तो धूल जम गई होगी उस पर
मैं नहीं बुहारती न अब धूल मिट्टी
फिर तुम तो बुहारोगे भी क्यूं
और भी तो काम हैं तुम्हें

अरे हाँ वो तुलसी का पौधा
मुरझा गया होगा अब
धूप के पीलेपन से झड़ने लगे होंगे पत्ते
वैसे ही जैसे तुमसे दूर
मेरा भी चेहरा पीला पड़ गया है

तुमने ये तो बताया था कि
प्रेम का रंग गुलाबी होता है
मेरी हथेलियों सा
लेकिन ये क्यों नहीं बताया
बिछोह का भी रंग होता है
पतझर जैसा........


......संयुक्ता

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