Friday 1 April 2016

बाकी तो सब छूट गया

डूब रहा है सूरज

रफ़्तार से गुज़र रहे पेड़

जो छूट रहे हैं पीछे

और मैं बढ़ रही हूँ आगे

अपने साथ कुछ चीजें लिए


बैग में एक डायरी

जिसमें हमारी तमाम मुलाकातें बिछीं हैं

जैसी की तैसी अक्षरों की शक्ल में

बतियाती हैं जीने लगती हैं सामने

जहाँ भाषा तुम्हारी हस्ताक्षर मेरे थे

वो जो डायरी तुम्हारी थी

अब मेरी है


वहीँ दो पन्नों के बीच छिपी

हमारी एक मुस्कुराती तस्वीर

जैसे समय के दो छोर से मुस्कुराती

दो मजबूरियां


अपने कन्धों पर वो आसमानी दुपट्टा

जो तुम ले आये थे पिछले बरस

परदेस से

वो एक ख़ास सी मुस्कराहट

जो सिर्फ मेरी थी

अपनी दोनों हथेलियों के बीच तुम्हारा चेहरा

अपनी आँखों में तुम्हारे सावन भर लायी हूँ

कि यही तो होंगे न

मेरे पतझड़ के ज़मीन में नमी


तुम्हारा प्यार अब भी है मेरे मन में

आत्मा में तुम्हारी सच्चाई है

बस

मोबाइल में नंबर नहीं अब तुम्हारा

तुम्हारी डायरी वो पते वाला पन्ना

छोड़ आई हूँ सिरहाने तुम्हारे


और हाँ

एक तुम्हारा रुमाल भी है मेरे पास

जो भीगा हुआ है अब भी

बाकी तो सब छूट गया

शहर तुम्हारा







2 comments:

  1. बहुत सुन्दर रचना .....

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    1. बहुत शुक्रिया बेनाम जी

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