Sunday 5 February 2017

अब जब हम मिलते हैं



किलोमीटर की धुंध में
ओझल हो गए मन से
कुछ अधिकार हमारे
खो गयी सफ़र में
चिंताएं,फिक्रें, ख़याल सब
मिलते तो हैं मंजिलों पर
लेकिन अब साँझा नहीं
मंजिलें अपनी अपनी हो गयीं
अब जब हम मिलते हैं
पूछ लेते हैं हाल चाल
घर-बार के
रिश्ते परिवार के
लेकिन अब
कहाँ पूछते हो तुम
और कहाँ कहती हूँ मैं
हाल मेरे मन के
अब जब हम मिलते हैं
प्यार नहीं
औपचारिकताएं निभाते हैं.......

4 comments:

  1. समय एक जैसा नहीं रहता, सबकुछ बदल जाता है...
    बहुत सुन्दर ..

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  2. बदलते वक्त के साथ बहुत कुछ बदल गया हैं। रिश्तों की परिभाषा भी। अब तो एक दुसरे कहते रहिए हम कितने बदले और तुम कितने।
    http://savanxxx.blogspot.in

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