Monday 19 December 2016

इतना न बरसना अबके बरस



सुनो बादल...........


इतना न बरसना अबके बरस

कि डूब जाएं गाँव पनघट  

गल जाएँ घरोंदे मिट्टी के   

तिनको से संवारे नीड़ सभी  

हो जाएँ तिनका तिनका ही

           

अबके न बरसना नदियों पर

आकंठ भरी हों जो जल से |

और सीमाओं तक भरे सिन्धु

आतुर हों तुम्हें रिझाकर बस

दो बूँद ही तुमसे पाकर बस

तूफ़ान उगलकर लील जाने

निर्दोष प्राणी जीवन असंख्य



हे ! आसमान से आते तुम

क्या समझ सकोगे पीड़ा ये

इस बाढ़ के कोलाहल से विवश

बच्चों के फिसलते हाथों को

मां की मजबूर पुकारों को 

तुम निर्दयी को नहीं दिखता ये

निर्दोष अबोध शिशु जिनकी

नन्हीं लाशों के टुकड़े तक

बनते न सिमटते आँचल में   

टकराकर पत्थर से कपाल

जब खंड खंड हो जाते हैं

और टूट जाते हैं अंग अंग

माटी के खिलौनों की तरह



क्या देख पाते हो तुम भी ये

वीभत्स दृश्य इतनी लाशें

और बाद सभी थम जाने के  

इक अट्टहास करती मृत्यु के

बीच खोजते हैं कुछ वो

जो बचे खुचे से जीवन हैं

जीना ही नहीं है जिनको अब

जीवन होने के बाद भी अब



सुनो बादल.........


तुम अबके बरस बरसो तो वहां

प्यासी है जहाँ हर ओर धरा

इक बूँद नीर की पाने को

व्याकुल है तृष्णा का जीवन  

नदियाँ को भरो तुम अबके वहां

धरती है जहाँ सूनी बंजर

बो पायें वहां कुछ हरियाली

कुछ खेत जहाँ लहरा पाएं

कुछ फसलें भी मुस्काने लगें

इक टुकडा भर उम्मीद उगे  

.....संयुक्ता

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